यादों के झरोखों से-ख़त्म होते सिनेमा हॉल 

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करीब 72 वर्षों तक अपने सिनेमायी कौशल से दून-वासिंदों को मनोरंजन का खूबसूरत अहसास देने के बाद आखिरकार प्रभात सिनेमा अपनी गति को प्राप्त हुआ। अभी छ: माह पूर्व कृष्णा पैलेस और अब प्रभात सिनेमा को ढहा दिए जाने के बाद धीरे धीरे देहरादून के सिनेमा हॉलों का वो कालजयी सफ़र मानो ख़त्म हो रहा है।

अपने सामने अपने सपने और यादों को धराशायी होते देखना कितना दुखदायी होता है,ये जानना हो तो पता चलता है जब प्रभात सिनेमा हॉल के मालिक नागपाल जी कहते हैं। …

“सिनेमा देखना और दिखाना मेरा जूनून है, लेकिन सिस्टम से हारने के बाद दिल पर पत्थर रखकर हॉल बंद करने का निर्णय ले रहा हूँ”

भारतीय सिनेमा की उम्र 100 साल से भी अधिक हो चुकी है, इन सौ सालों का सफ़र कई रास्तों और कई तरीकों से लोगों के बीच पहुंचा। हर शुक्रवार को सिनेमाघर की खिड़की पर कोई न कोई फिल्म दस्तक देती थी। देहरादून के सिनेमाघरों का बड़ा ही शानदार इतिहास रहा है यहाँ के सिनेमाघरों में तब फिल्म देखना एक अलग तरह का रोमांच होता था, मगर पिछले एक दशक से फिल्मों को देखने की नयी तकनीकें विकसित हुई और लोगों का रुख पीवीआर की और मुड़ गया। लोगों के इस  व्यवहार का शिकार हुए यहां के सिनेमाघर, जो आज ख़त्म होने की कगार पर पहुंच गये हैं।

वो भी एक दौर था जब देहरादून शहर में टॉकीजों की भरमार हुआ करती थी। उस समय 15-16 सिनेमा हॉल हुआ करते थे, फिल्मों की दीवानगी राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना जैसे अभिनेता, लोगों के पंसदीदा कलाकार हुआ करते थे। उन्हें बड़े पर्दे पर देखने का जुनून ऐसा की पुलिस की सख्ताई और भीड़ की जद्दोजहद के बाद टिकट निकाल लेना और पहले दिन का पहला शो देखना लोगों को गौरवान्वित करता था। 40 साल पहले  अगली पंक्ति का टिकट 1 रुपए 75 पैसे, तीन रुपए व बालकनी का टिकट 5 रुपए में मिलता था। कभी धनाड्य वर्ग के लिए बने टॉकीज आज गरीबों का सिनेमाघर बन कर रह गए है।

छायादीप सिनेमाघर के मालिक शीराज़ खान कहते हैं –

“एक समय सिनेमा बहुत लोकप्रिय था मगर आज एक तो सरकार की उदासीनता और दूसरा खस्ताहाल थिएटरों ने लोगों क रुख पीवीआर की और मोड़ दिया है और बची खुची कमी इंटरनेट ने पूरी कर दी आज फिल्मों की रिलीज के ही दिन और कभी कभी तो फिल्म रिलीज होने से पहले ही लीक हो जाती है और पायरेटेड सीडी मार्किट में आ जाती है”

सरकार से वह खासे नाराज़ नज़र आते है वे कहते हैं कि “हमें सरकार से थोड़ी भी मदद मिल जाती तो सिनेमा हाल पुनर्जीवित हो सकते हैं, वे कहते हैं की अगर सरकार ऋण के रूप में हमारी मदद करे तो हम खुद को अभी भी स्थापित कर सकते हैं। छायादीप सिनेमा हाल का निर्माण 1976 में हुआ और प्रथम फिल्म लैला मजनू थी”

पारिवारिक मानी जाने वाली गिनी-चुनी टॉकीजों में से एक कृष्णा पैलेस में दाखिल होना कभी शान की बात होती थी।

सिनेमाघर तब बदलने लगा जब वीसीआर और सीडी  ने बाज़ार में अपनी पकड़ बनानी शुरू की धीरे धीरे लोगों का रुख तकनीक की तरफ बढ़ने लगा शहरवासी अपनी मनपंसद फिल्में घर बैठे ही वीसीआर,सीडी में देख लिया करते थे। प्रोजेक्टर पर फिल्मे अब बाईट जमाने की बात हो गयी।

70 एमएम सिंगल पर्दे का दौर,कभी शहरों में मनोरंजन का एकमात्र जरिया हुआ करता था. फिल्म के एक-एक सीन पर दर्शकों का सीटी बजाना, या इमोशनल सीन पर भावुक हो जाना, ये तमाम बातें आज के दौर में सिर्फ यादें बनकर रह गई हैं 

कुछ सिनेमा आज समय के साथ बदलने की कोशिश में तो हैं ,मगर सिनेमाघर मालिकों का कहना है कि जितने भी सिनेमाघर हैं उनकी इतनी दुर्दशा हो चुकी है कि कर्मचारियों की तनख्वाह और बिजली,पानी  का बिल भुगतना भी मुश्किल है।कभी 25-26 कर्मचारियों का स्टाफ हुआ करता था जबकि आज दो से तीन कर्मचारियों  से काम चलाना पड़ रहा है।

 

 


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