ओम जोशी- देहरादून
याद कीजिये 1990 का वह दौर जब प्याज, रसोई गैस और बढ़ते पेट्रोल ,डीज़ल जैसे मुद्दे पर बीजेपी पूरे देश में हाहाकार वाली स्थिति ला देती थी,आज भी मुद्दे उससे कमतर न होकर बल्कि और भी भयावह रूप धारण कर चुके हैं,मगर विपक्ष खामोश है,विपक्ष के पास मुद्दे हैं मगर वह उसे उठाने से चूकता जा रहा है।
बात अगर उत्तराखंड के परिवेश में ही कि जाए तो आज पूरा उत्तराखंड सरकार जनित मुद्दों से भरा पड़ा है,मगर विपक्ष आज भी साइलेंट मूड में ही नजर आता है,बल्कि अगर कहा जाए की वह रस्म अदायगी करता प्रतीत होता है,तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
हिलटॉप विस्की जैसी कंपनियों को पहाड़ों में रोजगार देने के नाम पर सरकारी पहल जैसे मुद्दे पानी का बुलबुला साबित होते रहे हैं तो वहीँ स्वास्थ्य विभाग और आबकारी विभाग की विफलताएं जो की राज्य के मुख्यमंत्री की खुद की देखरेख में हैं और यही विभाग सरकारी विफलताओं में खूब भागीदारी निभा रहे हैं। अभी हाल में डेंगू से हुई मौतों और जहरीली शराब से हुई दर्जनों मौतें सरकार की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह लगा रही हैं.ऐसे में विपक्ष इन मुद्दों पर केवल रश्मअदायगी निभा कर चुप बैठ जाता है।
हैरानी की बात है कि आज विपक्ष में पहली पंक्ति के नेता पूरे परिदृश्य से गायब हैं या फिर अनमने भाव से सांप निकलने के बाद की लकीर पीटते नजर आते हैं। हरीश रावत,इंदिरा हृद्येश व फिर प्रीतम सिंह एकला चलो वाली थीम अपनाते नज़र आते हैं,तो वहीँ पूर्व में हमेशा सुर्ख़ियों में नज़र आने वाले किशोर उपाध्याय और पूर्व विधान सभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल आज के परिदृश्य में गायब हैं। हाँ कांग्रेस में दूसरी जमात के नेता आज भी पुरज़ोर तरीके से सरकार की खामियों को उजागर करने की जुगत में लगे दिखाई देते हैं। वे आज भी जनहित के मुद्दों पर लगातार सरकार से लड़ते नज़र तो आते हैं मगर बड़े नेताओं का साथ न मिलना इनके उल्लेखनीय कार्योँ पर पलीता लगाता नज़र आ रहा है।
आज भी कुछ गिने चुने नाम सूर्यकान्त धस्माना, जोत सिंह बिष्ट जैसे जमीनी नेता ही उत्तराखंड में कांग्रेस की ज़मीन बचाते नज़र आते हैं।करीब ढाई वर्ष पूर्व विधानसभा चुनाव में हाहाकारी हार से कोमा में गयी कांग्रेस आज भी उससे बाहर आती प्रतीत नहीं होती।
आज के दौर में जब सोशल मीडिया अपने पूरे शबाब पर है तो कांग्रेस की साइबर सेल ढूंढे नहीं मिल रही, ऐसे में आज आम आदमी खुद को बेसहारा मानकर खुद ही सोशल मीडिया का सहारा लेकर सरकार से लड़ता नज़र आता है। आम नागरिक से लेकर प्रबुद्धजन सभी अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं ऐसे में देश की सबसे पुरानी पार्टी का दम्भ भरने वाली पार्टी कांग्रेस अगर वक्त रहते न चेत पायी तो निश्चित मानिये की आने वाला यह समय कांग्रेस पर और भारी पड़ने वाला है।
उत्तराखंड में कांग्रेसी रहे सतपाल महाराज, उनकी पत्नी अमृता रावत, पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा,पूर्व विधानसभा अध्यक्ष यशपाल आर्य, पूर्व मंत्री हरकसिंह रावत, सुबोध उनियाल, प्रणव सिंह, केदार सिंह रावत, प्रदीप बत्रा, रेखा आर्य के भाजपा में शामिल होने के बाद छूट भय्ये नेताओं की महत्वाकांक्षा का जाग जाना भी उत्तराखंड कांग्रेस को कमजोर करने में बड़ी भूमिका निभा गया है। आज भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की एक दूसरे के खिलाफ अनर्गल बयानबाजी और प्रदेश में छुटभैय्या नेताओं की महत्वकांक्षा कांग्रेस वर्करों में वैमनष्य बढ़ने का एक बड़ा कारण बनती जा रही है। लगातार चुनाव में हार और वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं का कांग्रेस छोड़कर भाजपा में पलायन कर जाना भी कांग्रेस में निराशा का वातावरण बना गया और इस पर तुर्रा ये की इनके जाने के बाद कांग्रेस में छूटभैय्ये नेताओं की महत्वकांक्षा पार्टी की एकजुटता पर भारी पड़ती दिखाई देती हैं।
कांग्रेस को यदि अपनी खोई हुई साख वापस पानी है तो शीर्ष नेताओं को सम्मान देने के साथ ही छुटभैय्ये नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भी समझना होगा। प्रदेश स्तर पर अपने संगठन को मजबूत करने के लिए कुछ कड़े फैसले भी लेने होंगे। गुटबाजी और गलत बयानबाजी को पीछे छोड़ते हुए संगठित होकर आगे बढ़ना होगा। कांग्रेस पर लंबे समय से परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोप भी लगते रहे हैं,कहीं न कहीं इन समस्या की ओर भी कांग्रेस को ध्यान देना होगा। अगर कांग्रेस जल्द न चेती और अपनी स्वयं जनित समस्याओं से निपटने के उपाय जल्द नहीं कर पायी,तो लगता नहीं की वह प्रदेश में वापसी की राह तलाश कर पाएगी।