“खलंगा वॉर मेमोरियल” शौर्य का प्रतीक, दो सौ साल पहले के दौरान हुआ एक ऐसा ऐतिहासिक युद्ध जिसकी बहादुरी की कायल ब्रितानी फ़ौज भी हो गयी थी। यह स्मारक ब्रितानी सेना की जीत और नेपाली सैनिकों की वीरता की कहानी कहता है, आपने शायद ही कभी सुना हो जब किसी दुश्मन सेना ने अपनी हार के बावजूद अपने प्रतिद्विंद्वी सेना की बहादुरी की सराहना की हो और उसकी याद में एक स्मारक बनवाया हो। हालाँकि बाद में अंग्रेज़ों ने नालापानी के युद्ध में नेपाली सैनिकों को हरा दिया था लेकिन अंग्रेज़ उनकी वीरता के कायल हो गए थे।
आईये आपको बताते हैं एक ऐसे युद्ध की दास्तां जिसने युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे—
देहरादून की ऊंची खूबसूरत वादियों के बीच एक पहाड़ी है “खलंगा”, देहरादून शहर के घंटाघर से करीब 10 किलोमीटर दूर नालापानी में रिस्पना नदी के किनारे 1000 फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है खलंगा वॉर मेमोरियल। खलंगा नेपाली भाषा का वो शब्द, जिसका अर्थ होता है छावनी या कैंटोनमेंट।
इतिहासकारों का कहना है कि करीब दो सौ वर्ष पूर्व गोरखा सेना और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ था। उस दौरान गोरखा सेना के 600 सैनिक और उनके परिवार खलंगा किले में थे। जहां 31 अक्टूबर, 1814 में ब्रिटिश हुकूमत के सैनिकों और अफसरों ने धावा बोल दिया था। महज 600 गोरखा सैनिकों ने खलंगा पर मोर्चा संभाला था, जिनमें 100 महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। वीर बलभद्र थापा की बहादुर सेना के सामने 3500 सैनिक बल वाली ब्रिटिश सेना खड़ी थी, जिनके पास तब के आधुनिक हथियार थे, जबकि गोरखा सैनिकों के पास सिर्फ अपने पारंपरिक हथियार जिनमें खुकुरी, तलवार और धनुष-बाण शामिल थे।
दो असमान पक्षों के युद्ध में हथियारों के सीमित साधनों के बावजूद गोरखा पक्ष ने अद्भुत रण कौशल दिखाया। स्त्रियों- बच्चों सहित गोरखा सैनिक भारी लाव-लश्कर और आधुनिक हथियारों के साथ लड़ रहे ब्रितानी सेना से टकरा गए और गोरखा वीरों ने जी जान से युद्ध लड़ा। शुरुआती हमलों में ब्रितानी कंपनी की सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा।
जब ब्रितानी सेना को भेदिए से पता लगा लिया कि गढ़ी में ऊपर पानी नहीं है और शत्रु-पक्ष पानी के लिए नालापानी की एक बावड़ी पर निर्भर है फिर उन्होंने छल-कपट, फरेब से काम लिया। ब्रितानी फ़ौज ने खलंगा के क़िले की पानी आपूर्ति बंद कर दी। जिसके बाद भीतर घायल सैनिक, बच्चे-बुजुर्ग, महिलाएं तड़पने लगे। वीर बलभद्र से उनका दर्द देखा नहीं गया। उन्होंने अंग्रेजों से कहा, तुम हमें हरा नहीं सकते। हम खुद ही किला छोड़कर जा रहे हैं।
वीर बलभद्र के सैनिकों ने खुकुरी और पारंपरिक हथियारों के दम पर ही अकेले 781 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया था, जिनमें 31 अंग्रेज अफसर भी थे हालाँकि खलंगा पहाड़ी पर हुए इस भीषण युद्ध में गोरखा सेना का नेतृत्व कर रहे वीर बलभद्रको मजबूरन खुद ही किला छोड़कर जाना पड़ा।
ब्रितानी सेना उनकी बहादुरी से इतना प्रभावित हुयी कि अंग्रेजों ने देहरादून की सहस्त्रधारा रोड पर खलंगा शहीदों की याद में एक स्मारक बनवाया। गोरखा सैनिकों का शौर्य देखकर ब्रिटिश हुकूमत पर इतना प्रभाव पड़ा और उसने साल 1815 में गोरखा रेजीमेंट की स्थापना की। अंग्रेजी हुकूमत ने देश के साथ ही इंग्लैंड में भी गोरखा रेजीमेंट का होना जरूरी माना।
इतिहासकार कहते हैं कि नालापानी की लड़ाई के बाद 1824 में अफ़ग़ानिस्तान में राजा रणजीत सिंह की फ़ौज के पक्ष में लड़ते हुए बलभद्र कुंवर मारे गए। इस युद्ध के बाद तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने वहाँ पर अपने जनरल जिलेस्पी और बलभद्र कुंवर की याद में वहां पर दो स्मारक बनाए जिसमें बलभद्र और उनकी फौज को ‘वीर दुश्मन’ कह कर संबोधित किया गया है।
गोरखा समुदाय की वीरता की याद दिलाने वाला खलंगा स्मारक आज भी देहरादून की शान में चार चांद लगा रहा है। यहां हर साल हजारों की संख्या में सैलानी जुटते हैं। इसके साथ ही गोरखाओं की वीरता को याद करने के लिए शहर के गढ़ी कैंट क्षेत्र में मेला भी आयोजित किया जाता है।