भारतीय सिनेमा की उम्र 100 साल से भी अधिक हो चुकी है, इन सौ सालों का सफर कई रास्तों और कई तरीकों से लोगों के बीच पहुंचा। हर शुक्रवार को सिनेमाघर की खिड़की पर कोई न कोई फिल्म दस्तक देती थी। देहरादून के सिनेमाघरों का बड़ा ही शानदार इतिहास रहा है यहाँ के सिनेमाघरों में तब फिल्म देखना एक अलग तरह का रोमांच रहता था, मगर पिछले एक दशक से फिल्मों को देखने की नयी तकनीकें विकसित हुई और लोगों का रुख पीवीआर की और मुड़ गया। लोगों के इस व्यवहार का शिकार हुए यहां के सिनेमाघर, जो आज ख़त्म होने की कगार पर पहुंच गये हैं।
वो भी एक दौर था जब देहरादून शहर में टॉकीजों की भरमार हुआ करती थी। उस समय 15-16 सिनेमा हॉल हुआ करते थे, फिल्मों की दीवानगी राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना,जैसे अभिनेता लोगों के पंसदीदा कलाकार हुआ करते थे । उन्हें बड़े पर्दे पर देखने का जुनून ऐसा की पुलिस की सख्ताई और भीड़ की जद्दोजहद के बाद टिकट निकाल लेना और पहले दिन का पहला शो देखना लोगों को गौरवान्वित करता था। 40 साल पहले अगली पंक्ति का टिकट 1 रुपए 75 पैसे, तीन रुपए व बालकनी का टिकट 5 रुपए में मिलता था। कभी धनाड्य के लिए बने टॉकीज आज गरीबों का सिनेमाघर है।
70 एमएम सिंगल पर्दे का दौर, कभी शहरों में मनोरंजन का एकमात्र जरिया हुआ करता था. फिल्म के एक-एक सीन पर दर्शकों का सीटी बजाना,नाचना, गाना या इमोशनल सीन पर भावुक होना, ये तमाम बातें आज के दौर में सिर्फ सुनहरी यादें बनकर रह गई हैं।
छायादीप सिनेमाघर के मालिक शीराज़ खान कहते हैं -“एक समय सिनेमा बहुत लोकप्रिय था मगर आज एक तो सरकार की उदासीनता और दूसरा खस्ताहाल थिएटरों ने लोगों क रुख पीवीआर की और मोड़ दिया है और बची खुची कमी इंटरनेट ने पूरी कर दी आज फिल्मों की रिलीज के ही दिन और कभी कभी तो फिल्म रिलीज होने से पहले ही लीक हो जाती है और पायरेटेड सीडी मार्किट में आ जाती है।” सरकार से वह खासे नाराज़ नज़र आते है वे कहते हैं कि “हमें सरकार से थोड़ी भी मदद मिल जाती तो सिनेमा हाल पुनर्जीवित हो सकते हैं ,वे कहते हैं की अगर सरकार ऋण के रूप में हमारी मदद करे तो हम खुद को अभी भी स्थापित कर सकते हैं। छायादीप सिनेमा हाल का निर्माण 1976 में हुआ और प्रथम फिल्म लैला मजनू थी।
शहर में न्यू एम्पायर सिनेमा सहित कुछ दूसरे सिनेमाघर सुबह का एक एक्स्ट्रा शो चलाते थे जो दर्शकों की विशेष मांग पर जो इंग्लिश या क्षेत्रीय भाषाओं में होती थी। कनक सिनेमाघर ने “घर ज्वैं ” फिल्म के चारों शो दिखाए थे,लेकिन आज यह सिनेमाघर भी बंदी का शिकार हो गया।
सिनेमाघर तब बदलने लगा जब वीसीआर और सीडी ने बाज़ार में अपनी पकड़ बनानी शुरू की धीरे धीरे लोगों का रुख तकनीक की तरफ बढ़ने लगा शहरवासी अपनी मनपंसद फिल्में घर बैठे ही वीसीआर, सीडी में देख लिया करते थे। प्रोजेक्टर पर फिल्मे अब बीते जमाने की बात हो गयी।
पारिवारिक मानी जाने वाली गिनी-चुनी टॉकीजों में से एक कृष्णा पैलेस में दाखिल होना कभी शान की बात होती थी। आज समय के साथ सिनेमाघर इसलिए नहीं बदल पाए क्योंकि इंटरनेट ने सिनेमाघरों से लोगों को दूर कर दिया हर हाथ में मोबाइल है और प्राईवेसी खत्म हो गई है, फिल्म लीक हो जाती है और दर्शक उन्हें अपनी सुविधानुसार देख लेते हैं।
कुछ सिनेमा आज समय के साथ बदलने की कोशिश में तो हैं ,मगर सिनेमाघर मालिकों का कहना है कि जितने भी सिनेमाघर हैं उनकी इतनी दुर्दशा हो चुकी है कि कर्मचारियों की तनख्वाह और बिजली,पानी का बिल भुगतना भी मुश्किल है।कभी 25-26 कर्मचारियों का स्टाफ हुआ करता था जबकि आज दो से तीन कर्मचारियों से काम चलाना पड़ रहा है।