उत्तराखंड में उल्लासपूर्वक मनाया गया हरेला पर्व: संस्कृति, स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण का अद्वितीय संगम
रिपोर्ट: The Mountain Stories | 16 जुलाई 2025/ देवभूमि उत्तराखंड आज अपने पारंपरिक लोकपर्व हरेला के उल्लास में डूबा रहा। यह पर्व केवल हरियाली और पौधरोपण तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें संस्कृति, स्वास्थ्य, पर्यावरण और आयुर्वेद का अद्भुत समावेश दिखाई देता है। हरेला का शाब्दिक अर्थ है ‘हरियाली’, लेकिन इसके निहितार्थ व्यापक और बहुआयामी हैं। आज राज्यभर में लाखों की संख्या में पौधे लगाए गए, और विशेषज्ञों ने इस पर्व के वैज्ञानिक व स्वास्थ्य पक्षों पर भी गहन प्रकाश डाला।
हरेला: प्रकृति और शरीर के संतुलन का पर्व
आयुर्वेद विशेषज्ञ डॉ. अवनीश उपाध्याय बताते हैं कि हरेला केवल प्रकृति प्रेम ही नहीं, बल्कि शरीर, मन और परिवेश के समन्वय का अनुभव भी कराता है। उनके अनुसार, हरेले के अंकुरों में क्लोरोफिल, फाइबर, सूक्ष्म खनिज व एंजाइम्स होते हैं, जो शरीर को शुद्ध करने, पाचन सुधारने और मनोदशा सुदृढ़ करने में सहायक हैं। इन्हें सुखाकर पाउडर के रूप में उपयोग करना एक प्रकार का प्राकृतिक टॉनिक माना जाता है।
आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से हरेला
द्रव्यगुण विशेषज्ञ प्रो. सुरेश चौबे ने आचार्य चरक के वाक्य “ऋतुभिर्हि गुणा: सर्वे द्रव्याणां भावयन्त्यपि” का उल्लेख करते हुए बताया कि हर ऋतु के अनुसार द्रव्यों (भोजन व औषधि) के गुण बदलते हैं। हरेला वर्षा ऋतु की शुरुआत का प्रतीक है, जब शरीर में वात और पित्त दोष बढ़ते हैं और पाचन अग्नि मंद हो जाती है। ऐसे में हल्का, सुपाच्य और स्निग्ध आहार, जैसे मंडुए की रोटी, गहत की दाल, झंगोरा की खीर आदि, शरीर को संतुलन में लाते हैं।
हरेला: औषधीय ध्यान साधना और नवधान्य परंपरा
ऋषिकुल आयुर्वेदिक कॉलेज के निदेशक डॉ. डीसी सिंह के अनुसार, हरेला बोने की प्रक्रिया स्वयं में एक ध्यान साधना है। इस अवसर पर गेहूं, जौ, मक्का, उड़द, तिल आदि के मिश्रण से ‘नवधान्य’ बोए जाते हैं, जिनका उल्लेख काश्यप संहिता में भी मिलता है। ये अंकुरित होने के बाद उन्हें पूजकर घर के बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया जाता है। यह प्रक्रिया परंपरा, श्रद्धा और चिकित्सा का एक जीवंत मेल है।
पारंपरिक खेल और पंचकर्म चिकित्सा
पंचकर्म विशेषज्ञ डॉ. पारुल शर्मा का मानना है कि हरेला पर्व पर खेले जाने वाले पारंपरिक खेल प्राकृतिक व्यायाम हैं, जो बच्चों और युवाओं के लिए शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ करते हैं। साथ ही, इस पर्व के दौरान लगाए जाने वाले पौधे जैसे नीम, तुलसी, आंवला, अर्जुन आदि पंचकर्म चिकित्सा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
जीवनशैली को प्रकृति के अनुरूप ढालने का अवसर
आयुर्वेद विशेषज्ञ डॉ. रुचिता उपाध्याय ने हरेला को जीवनशैली को प्रकृति के अनुरूप लाने का आदर्श समय बताया। उनका कहना है कि यह पर्व स्वस्थ जीवन की प्रयोगशाला है, जहां प्रकृति, संस्कृति और चिकित्सा का संगम होता है। यह हमें सिखाता है कि स्वास्थ्य केवल शरीर की स्थिति नहीं, बल्कि मन, समाज और वातावरण के साथ संतुलन बनाए रखना भी है।
राज्यभर में हरेला पर्व पर व्यापक कार्यक्रम
मुख्यमंत्री ने किया रुद्राक्ष का पौधरोपण
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने गोरखा मिलिट्री इंटर कॉलेज परिसर में रुद्राक्ष का पौधा रोपकर हरेला पर्व की शुरुआत की। इस दौरान वन मंत्री सुबोध उनियाल व कृषि मंत्री गणेश जोशी भी मौजूद रहे। मुख्यमंत्री ने कहा:
“यह पर्व हमारे पूर्वजों की प्रकृति पूजा और पर्यावरण संरक्षण की भावना को जीवंत करता है। इस बार हमने प्रदेश में 5 लाख पौधे लगाने का लक्ष्य रखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘एक पेड़ मां के नाम’ अभियान के तहत यह एक बड़ा प्रयास है।”
मुख्यमंत्री ने राज्य सरकार की ग्रॉस एनवायरमेंट प्रोडक्ट योजना का भी जिक्र किया, जिसके जरिए राज्य के पर्यावरणीय प्रयासों का मूल्यांकन किया जाएगा।
गढ़वाल और कुमाऊं में पौधरोपण
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गढ़वाल मंडल में 3 लाख और कुमाऊं मंडल में 2 लाख पौधे रोपने का लक्ष्य रखा गया है।
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तराई पूर्वी वन प्रभाग और आईटीबीपी के सहयोग से लालकुआं और गौला रेंज में फलदार व औषधीय पौधे लगाए गए।
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डीएफओ हिमांशु बागड़ी ने बताया कि जंगलों में फलदार पौधों की कमी के कारण जंगली जानवर आबादी की ओर आ जाते हैं। इस समस्या को पौधारोपण से कम किया जा सकता है।
पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट का संदेश
चमोली में प्रसिद्ध पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट ने युवाओं, महिलाओं और छात्रों से पर्यावरण संरक्षण में भागीदारी की सराहना की और कहा कि:
“हरेला केवल पर्व नहीं, प्रकृति से हमारी जिम्मेदारी का बोध कराता है। वनों की रक्षा और वृक्षारोपण आज की आवश्यकता है।”
मसूरी में कांग्रेस भवन में नवाचार
मसूरी में कांग्रेस भवन में विशेष कार्यक्रम के तहत पौधों का वितरण किया गया और उन्हें परिवार के सदस्य की तरह पालने की अपील की गई। पूर्व विधायक जोत सिंह गुनसोला ने कहा:
“हरेला पर्व भविष्य बोने का अवसर है। केवल पौधा लगाना नहीं, उसकी देखरेख ही असली जिम्मेदारी है।”
हरेला पर्व ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक जड़ें न केवल परंपराओं में हैं, बल्कि वे वैज्ञानिक, आयुर्वेदिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी बेहद समृद्ध हैं। यह पर्व हरित क्रांति, सामूहिक चेतना और स्वास्थ्य-संस्कृति के संतुलन का उत्सव बन चुका है।