उत्तराखंड के चुनाव की मतगणना समाप्त हो गयी है और चुनाव परिणाम सामने आ गए हैं। हर बार के चुनावों में कुछ नए मिथक बनते हैं जबकि कुछ मिथक टूटते भी हैं। ये विधानसभा चुनाव भी इन मिथकों का बनने और टूटने के लिए जाना जायेगा। उत्तराखंड की सियासत में पहली बार कई मिथक टूटे हैं तो वहीं कुछ आज भी पूर्व की भांति बरकरार हैं।
आईये नज़र डालते हैं ऐसी कुछें धारणाओं पर जो लम्बे समय से चली आ रही थी और इस विधानसभा चुनाव में टूट गयी हैं–
1- राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में कांग्रेस और भाजपा बारी-बारी से सत्ता पर काबिज रहीं हैं। दो दशक में चार विधानसभा चुनाव में बड़ा मिथक रहा है कि सत्ता में रहते हुए किसी भी दल ने दूसरी बार जीत दर्ज नहीं की है। वर्ष 2002 में हुए पहले चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई तो वर्ष 2007 में भाजपा को जनता ने सत्ता सौंपी। वर्ष 2012 के चुनाव में कांग्रेस ने फिर से सत्ता संभाली तो वर्ष 2017 के चुनाव में भाजपा भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। वहीँ इस बार भाजपा ने लगातर दूसरीजीत दर्ज कर इस मिथक को तोड़ दिया है।
2- दूसरा दिलचस्प संयोग उत्तराखंड में यह रहा कि यहां शिक्षा मंत्री कभी चुनाव नहीं जीतता। पूर्ववर्ती सरकारों में ऐसा देखा भी गया। इस बार शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय के सामने इस मिथक को तोड़ने की चुनौती थी। उन्होंने यह मिथक तोड़ा और तकरीबन पांच हजार से अधिक मतों से गदरपुर सीट पर जीत हासिल की।
3- वहीं पेयजल मंत्री बिशन सिंह चुफाल ने डीडीहाट विधानसभा सीट से चुनाव जीत कर इस मिथक को तोड़ा है। प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में अब तक जितने भी चुनाव हुए हैं। उसमें पेयजल मंत्री भी कभी चुनाव नहीं जीते पाए थे।
वो मिथक जो आज भी हैं बरकरार-
1- प्रदेश की सियासत में यह भी मिथक है कि मुख्यमंत्री चुनाव नहीं जीतता है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के सामने भी इस मिथक को तोड़ने की चुनौती थी, लेकिन वे भी इस चुनौती से पार नहीं पा पाए और उन्हें भी हार का मुंह देखना पड़ा है। 2007 में भाजपा के मेजर जनरल बीसी खंडूरी सीएम बने। उन्हें 2012 के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। 2012 में कांग्रेस फिर सत्ता में आई और विजय बहुगुणा सीएम बने, लेकिन उन्होंने 2017 का चुनाव नहीं लड़ा। बहुगुणा के बाद सीएम बने हरीश रावत ने किच्छा और हरिद्वार से चुनाव लड़ा। वे दोनों ही सीटों पर चुनाव हार गए थे। वर्तमान भाजपा सरकार के कार्यकाल में मुख्यमंत्री धामी ने तीसरी बार खटीमा से चुनाव मैदान में थे मगर वे जीत न दर्ज कर पाए।
2- गंगोत्री विधानसभा सीट जुड़ा मिथक आज तक बरकरार है। त्रिकोणीय मुकाबले में इस सीट से भाजपा के सुरेश चौहान ने जीत हासिल की है। जबकि सरकार बनाने के लिए बहुमत भी भाजपा के पक्ष में आया है। गंगोत्री को लेकर बरसों से मिथक बरकरार है कि जिस पार्टी का प्रत्याशी चुनाव जीतता है। उसी दल की सरकार बनती है।
3- प्रदेश में एक और मिथक मुख्यमंत्री आवास को लेकर भी अक्सर चर्चाओं में रहा है। वह यह है कि जो भी इस आवास में रहता है, वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाता अथवा चुनाव नहीं जीतता। चाहे व पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी रहे या फिर रमेश पोखरियाल निशंक। ये मुख्यमंत्री बने लेकिन अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। इसके बाद कांग्रेस सरकार में विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बनने के बाद इस आवास में रहने आए लेकिन उन्हें भी बीच में पद छोड़ना पड़ा। बता दें कि प्रदेश में आई आपदा के बाद मुख्यमंत्री बने हरीश रावत ने इस आवास से हमेशा दूरी बनाए रखी। मुख्यमंत्री बनने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत इस आवास में रहने आए लेकिन वह भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। इसके बाद पुष्कर सिंह धामी इस आवास में रहे और वह भी चुनाव हार गए।