पिछले कुछ वर्षों से उत्तराखंड और हिमाचल में बरसात भारी पड़ने लगी है। इस वर्ष प्राकृतिक आपदा से आम जनमानस बहुत त्रस्त है। पुरे देश में बरसात ने जमकर कहर बरपाया है, खासकर देवताओं की भूमि और अपनी असीम सुंदरता, पर्यटन स्थल और अपनी आकर्षक जगहों के लिए जाने वाले उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश ने इस त्रासदी को खुद में जिया है। अनुकूल वातावरण, सुरम्य प्राकृतिक दृश्य, रंगीन संस्कृति, और दर्शनीय स्थल और विभिन्न प्रकार के मेले त्योहारों का यह प्रदेश इन दिनों कुरूप नजर आता है।
आये दिन सोशल मीडिया, अखबारों, और समाचारों में उत्तराखंड और हिमाचल से जुड़ी बरसात और उससे होने वाली तबाही की दास्ताँ कहते वीडियो और तस्वीरें आ रही हैं। जुलाई के महीने से शुरू हुआ बरसात का यह कहर अगस्त के बीतते बीतते भी ज्यूँ का त्युं रहा बल्कि अगर ये कहें कि ज्यादा भयावह हुआ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मीडिया में छपे आंकड़ों के मुताबिक इस साल हिमाचल में बारिश में 361 से अधिक लोगों की मौत हो गयी है। 2000 से अधिक घर पूरी तरह से तबाह हो गए है। करीब दस हजार घरों को आंशिक रूप से नुकसान पहुंचा है। 300 के करीब दुकान तबाह हो गयी हैं तो वहीं 4700 सौ से अधिक गौशालाएं नष्ट हो गयी हैं। इतना कुछ होने के बावजूद इससे सबक लेने को कोई तैयार नज़र नहीं आता।
मौसम विभाग के माने तो यह सब नुकसान वहां पश्चिमी विक्षोभ के सक्रिय होने और दक्षिणी-पश्चिमी अरब सागर की मानसूनी हवाओं का हिमालय की तलहटी से टकराना है। पश्चिमी विक्षोभ को एक तूफ़ान कहा जाता है जो भूमध्य सागर से उत्पन्न होता है। इन दिनों ऐसा कोई दिन नहीं आया जिस दिन मौसम विभाग को अलर्ट न जारी करना पड़ा हो। हिमालय वैसे भी अपने एक्सट्रीम वेदर की वजह से सबसे ज्यादा असुरक्षित है। लोगों का कहना है कि यह प्राकृतिक आपदा है, लेकिन क्या यह सचमुच प्राकृतिक आपदा है या यह प्राकृतिक आपदा न होकर सुनियोजित ढंग से की गयी स्वयं जनित आपदा है।
जानकारों का कहना है कि यह गाथा इंसान ने खुद बड़े सुनियोजित ढंग से लिखी है, और यह पहली बार नहीं है बल्कि हर साल इस तरह का नुकसान उठाना पड़ा है। खासकर पिछले तीन दशकों में जिस तरह पहाड़ों को काटकर बेतरतीब निर्माण हुआ, इसकी नीवं तभी पड़ गयी थी। और आज यह एक भयावह रूप में सामने आयी है। फिर चाहे वह पेड़ों को काटकर सड़कों का निर्माण हो, या फिर अव्यवस्थित ढंग से मकानों का निर्माण।
यूँ तो इंसान हमेशा से ही अपने फायदे के लिए प्रकृति का दोहन करता आया है मगर बात बिगड़नी शुरू हुई करीब 90 के दशक से जब केंद्र सरकार ने कहा की इन राज्यों को आपने वित्तीय घाटा कण्ट्रोल करना होगा, और राज्य को जो स्पेशल कैटेगिरी दी जा रही है वो हम ज्यादा समय तक नहीं दे पाएंगे। अब इन राज्यों को अपना वित्तीय घाटा कण्ट्रोल करना था। तब हमने अपने नेचुरल रिसोर्सेस को बेचना शुरू किया उसी वक्त इस तबाही की नीवं पड़ गयी थी और आज यह नीवं उखड़ने लगी है। हमारे पास नेचुरल सोर्स थे जल, जंगल और जमीन। हमने इनका दोहन ही नही किया बल्कि हमने आँखें बंद कर बड़े स्तर पर इन्हें निचोड़ना शुरू किया। पानी की बड़ी बड़ी परियोजनाएं लगानी शुरू की, तो वहीँ टूरिज़्म को बढ़ावा देने के लिए जहाँ तहां कंट्रक्शन शुरू किये। पहाड़ों को 90 डिग्री तक काटा गया। ऑल वेदर रोड के लिए पेड़ों का बेतहाशा कटान हुआ मगर ये फोर लेन सड़कें आल वेदर के नाम पर एक बरसात नहीं झेल पा रही हैं।
भूकंप, बाढ़, सूखा, सुनामी, भारी बरसात जैसी आपदा पर इंसान का कण्ट्रोल तो नहीं है मगर हाँ इस पर इतना तो किया जा सकता है कि नुकसान कम से कम हो। इससे निपटने के लिए राज्य और केंद्र सरकार त्वरित सहायता और मुआवजा देते तो हैं लेकिन हम जानते की सरकारी मशीनरी किस तरह काम करती है। अगर हम, अब भी समय से न चेते, पहाड़ों में बसावट के तौर तरीके पहाड़ों अनुसार सही से न अपना पायें और अपने जल जंगल और ज़मीनो को न बचा पाए तो हमारा जीना दूभर ही नहीं बल्कि कई जिंदगियां एक साथ काल का ग्रास बनती रहेंगी। केदारनाथ आपदा शायद ही कोई भूला हो।